Saturday, November 6, 2010

एक सवाल






इन सपनो ,ख्वाइशो व उम्मीदों से
अपने वजूद कि किश्तों को समेटना मतलब 
बिखरे हुए आईने में अक्श समेटने जैसा है ! 

एक कभी ना खत्म होती तलाश 
कभी ना मिटने वाली प्यास ..
कभी हार को जीत कहना 
कभी जीतकर भी हारना 
हर कदम पर एक नयी ठोकर 
गिर गिर कर संभलते  रहना 
यही सब जिदगी है शायद !

समझदार हो चली अब 
हर एक आरजू ..हर एक ख्वाइश 
सब अधूरी तमन्नाएँ ..
समझ आने लगें है अब 
तकाज़े .....दस्तूर ...उसूल .!.

अब कोई इल्तजा पंख फैलाने 
कि जुर्रत नहीं करती 
जहन के इस सख्त पिंजरे में ..

मगर दिल कि परतों में 
दबी कोई  खलिश सी 
बहुत चुभती है कभी कभी 
लहुलुहान हो उठती है रगें 
जब कोई बुरी तरह 
जख्मी सा मेरे भीतर कुछ 
पूछ लेता है मुझसे  ..

"जिंदगी जीने के लिए 
दुबारा क्यूं नहीं मिलती ??"

9 comments:

  1. बहुत ही ख़ूबसूरत रचना... काश ज़िन्दगी दुबारा जीने को मिलती... मेरे ब्लॉग पर इस बार पहचान कौन चित्र पहेली ...

    पहचान कौन....

    ReplyDelete
  2. बे इन्तिहाँ दर्द को समेटे हुए नज़्म ...दुबारा ज़िंदगी में भी यही सब मिलतो ..????????

    ReplyDelete
  3. अब कोई इल्तजा पंख फैलाने
    की जुर्रत नहीं करती
    ज़हन के इस सख़्त पिंजरे में ..

    सुन्दर अहसास और भाव की रचना

    ReplyDelete
  4. ताकि उस दर्द से दोबारा ना गुजरना पडे शायद इसीलिये दोबारा नही मिलती।

    ReplyDelete
  5. दीप पर्व की हार्दिक शुभकामनायें ... ...

    ReplyDelete
  6. बहुत ही मार्मिक और सुन्दर रचना है!

    ReplyDelete
  7. Zindgi jeene ko dobara nahi milti....aur ham kahte hain samajhdaari achchi cheez nahi hoti...kyonki samajhdaar log zindgi jiya nahi karte....measurement karte hain . Kavita ka theme achchi hai

    ReplyDelete
  8. जिंदगी एक ही बार मिलती है... उसी में पुनर्जन्म हो सकता है... नयी शुरुआत हो सकती है!

    ReplyDelete
  9. बहुत ही उम्दा रचना...

    ReplyDelete

तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...