टूटते तारो कि कुछ तो हर्जी वसूल हुई
चलो अपनी भी कोई तो दुआ कबूल हुई
उसूलो के खम्बो से बंधी है उडारी मेरी
जिंदगी जैसे किसी आँगन की झूल हुई
हम ये इल्जाम लेकर जियेंगे जाने कैसे
जिंदगी भर ना भूलेंगे हमसे जो भूल हुई
इस गुजरे वक्त से तो भला कौन डरता है .
मगर कल यही बंद कालिया जो ..शूल हुई
इतना भी खुद से भला बिगड़ना किस लिए
इंसानों से ही हुई ..जब भी कोई भूल हुई
ड़ाल पर रहता तो बिखरता जरूर ,अच्छा हुआ
ख्वाहिशे किसी की बंद किताब का फूल हुई
-वंदना