Thursday, October 28, 2010

ख्वाहिशे किसी की बंद किताब का फूल हुई



टूटते तारो कि कुछ तो हर्जी वसूल हुई 
चलो अपनी भी कोई तो दुआ कबूल हुई 

उसूलो के खम्बो से बंधी है उडारी मेरी 
जिंदगी जैसे किसी आँगन  की झूल हुई  

हम ये इल्जाम लेकर जियेंगे जाने कैसे 
जिंदगी भर ना भूलेंगे हमसे जो भूल हुई 

इस गुजरे वक्त से तो भला कौन डरता है .
मगर कल यही बंद कालिया जो ..शूल हुई

इतना भी खुद से भला बिगड़ना किस लिए 
इंसानों से ही हुई ..जब भी कोई भूल हुई 

ड़ाल पर रहता तो बिखरता जरूर ,अच्छा हुआ 
ख्वाहिशे किसी  की बंद किताब का फूल हुई 

-वंदना 

Monday, October 25, 2010

जिंदगी




शहर ,गाँव सी जिंदगी
है धूप छाँव सी जिंदगी !

पथरीली राहों पर जैसे
है नंगे पाँव सी जिंदगी !

मजधारों में गोते खाए
है एक नाव सी जिंदगी !

मक्खी बनकर वक्त कुरेदे
है खुले घाव सी जिंदगी !

खुद से हारे खुद को जीते
है एक दाव सी जिंदगी !

मरते दम मोह ना जाये
है बुरे चाव सी जिंदगी !

बेमोल ही कोई लाद चले
है टके भाव सी जिंदगी!!

वंदना

Monday, October 18, 2010

बस यूँ ही तेरी ..हर एक बात महके



ये चाँद महके ये चांदनी रात महके
आसमां में तारों कि बरात महके

यादों ने छेड़ दिए तार धडकनों के
दिल के आज सारे जज्बात महके

न अल्फाज ,जिसकी न हैं जुबाँ कोई
मेरे जहन में वही प्यारी सी बात महके

मैं पल पल यूँ ही जीता मरता रहूँ
मेरी साँसों में सदा ये सौगात महके

दूर से ही मुझे दीदार ऐ चाँद होता रहे ,
सुकून की बस यू ही ये कायनात महके

मेरे अफसानों का हर लफ्ज गूंगा हो
बस यूँ ही तेरी ..हर एक बात महके

-वन्दना

Sunday, October 3, 2010

तड़प




अक्सर चांदनी रातो में
जब तारे जगमगाते थे
नींदों को मेरी न जाने
कौन से पर लग जाते थे

फकत मुझ से ही मिलने
जैसे चाँद जमीं पर आता था
दिल की परवाज के आगे
गगन ही छोटा पड़ जाता था

भला किया जो तुमने इसके
सारे ही पर काट दिए ..
मैं भी तो देखूं दिल का पंछी
आखिर कब तक तडफडायेगा !!

-वंदना

Friday, October 1, 2010

कोई प्यारा सा खिलौना भी खोकर नहीं देखा




इस चेहरे को अश्को से धोकर नहीं देखा,

अब से पहले खुलकर कभी रोकर नहीं देखा

जिंदगी को खोने पाने का इल्म ही न था,
कोई प्यारा सा खिलौना भी खोकर नहीं देखा

किसी को नफरत भी है हमसे सोचा ही नहीं था,
काँटा किसी के दिल में कभी बोकर नहीं देखा

वो जो कभी मिलता था गले पड़कर मुझसे ,
आज उसी दोस्त ने पीछे मुड़कर नहीं देखा

जाने किस तरह हौंसला करके आया था मैं,
अपने जमीर को खाते यूँ कभी ठोकर नहीं देखा

वंदना
10/1/2010

तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...