Sunday, February 27, 2011

हिंद-युग्म पर एक ग़ज़ल


Friday, February 18, 2011


छुपाकर दिल-ओ-ज़ेहन के छाले रखिये


पुरस्कृत रचना: गज़ल



लबो पे  हँसी, जुबाँ पर  ताले रखिये,
छुपाकर दिल-ओ-ज़ेहन के छाले रखिये


दुनिया में  रिश्तों का  सच  जो भी हो,
जिन्दा रहने के लिए कुछ भ्रम पाले रखिये


बेकाबू  न हो जाये ये अंतर्मन  का  शोर ,
खुद को यूँ भी न ख़ामोशी के हवाले रखिये


होती है मोहब्बत भी तलब ए मुश्कबू सी ,
इस सफर ए तीरगी में नज़र के उजाले रखिये
मौसम आता होगा एक नयी तहरीर लिए,
समेटकर पतझर कि अब ये रिसाले रखिये


कभी समझो शहर के परिंदों की उदासी
घर के एक छीके में कुछ निवाले रखिये


तुमने सीखा ही नहीं जीने का अदब शायद,
साथ अपने  वो बुजुर्गो कि  मिसालें रखिये


(मुश्कबू= कस्तूरी की गंध
रिसाले = पत्रिका)
__________________________


वन्दना सिंह 

Friday, February 25, 2011

त्रिवणी



मेरी जमीं .. मेरे हिस्से का जहान लेकर ,
एक मुट्ठी में चाँद ..एक में आसमान लेकर !


मुझे यकीं है जिंदगी इसतरह भी मिलेगी मुझसे !!

-वन्दना



Thursday, February 24, 2011

my best friend :)


ये कविता अपनी एक बचपन कि दोस्त के लिए 
उसके बर्थडे पर लिखी थी ....
जिसे कविता बनाने कि ज्यादा कोशिश नहीं कि ..
इसलिए बहुत साधारण सी है !.

  

तुझे पता है 
हमने जिंदगी के 
21 साल जी लिए हैं
जिंदगी के बीते सफ़र 
बचपन के वो शुरुवाती लम्हे ,,
 जहां  तक याद के उजाले 
मेरी आँखों में ठहरे हुए हैं 
वहां आज भी मुड़कर देखती हूँ 
तू ही साथ दिखती है ...

दल्लान कि झूल पर झूलते हुए 
साथ में जामुन खाती हुई 

कभी रेत के टीलों पर 
मेरा हाथ पकडे दौडती हुई ..
कभी खेतो में मटर या चने तोडती हुई 
कभी चुपके से धूप में खड़ी
घर के अन्दर झांकती हुई 
कभी अपने घर के बहार 
मेरे आने का रास्ता देखती हुई 
कभी साथ में बैठी पढ़ती हुई 
स्कूल से आते वक्त 
उस छोटी नहर में 
मेरे साथ पैर धोती हुई ..
कभी पेड़ों कि ठंडी छाँव में 
बोरी पर बैठके खेलती हुई 
कभी दोपहर में गुड्डे 
गुडिया कि शादी में 
माँ कि चुनर ओढ़कर 
संग संग नाचती हुई !

बचपन से फांसला होते होते 
वक्त ने तुझसे भी कर दिया 
मगर दूरिया नहीं आयीं कभी ..
एक ऐसा साथ ही शायद 
रिश्तो में विश्वास पैदा करता है..

जब कभी भी फोन करती हूँ 
वो तेरा  excited  होकर
एक लम्बी सी हाये बोलना 
जैसे किसी दौड़ के बाद
फ़ोन उठाया हो तूने  ..
एक तपती सी दुपहरी में 
उसी नीम कि छाँव जैसा 
सुकून देता है आज भी 
तुझसे बात करना 

पागल है बिल्कुल ,
बेवजह  खिलखिलाना 
हर मुश्किल बात को 
हंसकर उड़ा देना ..
 पता नहीं मैंने तुझसे सीखा 
या तूने मुझसे ..

चाहती हूँ  तू हमेशा इसी तरह 
अलग रहे ..सबसे जुदा ..
हर बात को सादगी से challenge
करती हुई ..अपनी जमीं से 
जुड़कर आसमान तलाशती हुई !!






Tuesday, February 22, 2011

मौसम !

ये रंग बदलता मौसम 
जब शाख़  के सब पत्ते 
पड़ गए पीले! 
सीने में तूफ़ान लिए  
 गुजर गयी हवा 
झोकों का हाथ थामे 
तमाम जंगल के सर से..
सब पात ज़मीन की  
धूल चाटने को मजबूर !


बस एक और आंधी 
बस एक और बारिश 
इन सूखे पत्तों का 
अस्तित्व मिटाने के लिए 

ये उजड़े हुए पेड़ 
फिर एक नए बसंत की
 राह ताकते हुए ..
उस एक पीड़ित 
किसान की  तरह  
जिसने खो दी हो 
अपनी फसल
बिना कुछ पाए  ! 


इस आते जाते मौसम के
 चक्रव्यूह को  'जीवन'
और 
वक्त कि इस पलट- फेर को ही
 'नीति' कहते हैं शायद ! 

~ वंदना 

Thursday, February 17, 2011

नज्म



तुम्हारे हिस्से कि 
सब बाते ..कब की 
मौन हो गयी हैं यूँ  तो .
.फिर भी देखा है मैंने 
अपनी तहरीरो में 
शब्दों को छटपटाते हुए 

आखिर क्यूं ????
क्यूं जिंदगी का ये इल्जाम 
मैं कबूल कर लूं 
क्यूं मान लूं दिल का वो झूठ 
जो वहम हो सकता है 
मगर सत्य कभी नहीं था !

क्यूं मान लूं मैं 
इन एहसासों का 
ये कड़वा सच 
क्या सोचकर पी लूं  ये जहर 
जो मेरी रगों में उतर चुका है 

जब तुम नहीं थे 
जिंदगी में कहीं भी 
तब भी था कोई 
उस चाँद में 
उस जुगनूं में 
इन हवाओं में 
इन फिजाओं  में 
मेरे सपनो में 
मेरे पागलपन में 
मेरी नज्मो में 
मेरे गीतों में 
मेरी बातों में 
मेरे वैराग्य  में 
मेरे अपने ही हाथो से 
बनायीं हुई 
एक काल्पनिक 
तस्वीर कि तरह !

हाँ कुछ तो बदला था 
तुमसे मिलकर ...
गुजरते पलों कि खनक 
लम्हों में घुली 
इन्तजार कि चासनी  
महसूस तो कि थी 
एक छटपटाहट
इन हवाओ में 
इन नन्ही बूंदों में ..

बदल रहा था 
मेरा पागलपन ..एक 
अजीब सी तड़प में ...
बदल रहा था वो वैराग्य 
एक विरह में  !
बदल रही थी. ..
मेरी बातो में वो खामोशी 
जिसकी गूँज किसी 
पागलखाने कि उस खाली 
कमरे कि तरह थी 
जिसमे किसी को 
कैद किया गया हो 
खुद कि चीखें सुनने के लिए ..

बदला था बहुत कुछ 
मगर किस बात के लिए 
मेरे हाथो में अभी भी 
वही कैन्वस तो था 
जिसपर मैं कल्पनाओं 
के चित्र गढ़ती थी 
किरदार बनाती थी ..

उतारना चाहती थी
शायद एक सच्ची तस्वीर  को 
अपने काल्पनिक और 
झूठे रंगों से 
सिर्फ उस कैन्वस पर ..

मगर उम्मीदों में कभी नहीं, 
न ही सपनो में...
मैंने भूलकर भी कोई 
सच्ची तस्वीर नहीं गढ़ी ..

कैसे स्वीकार कर लूं 
वो कोई भी खता 
जो कि नहीं 

मगर पल पल कि 
ये मुकम्मल सजाएं 
क्यूं कहती हैं 
गुनहगार मुझे ?

नहीं देखना चाहती 
अपनी तहरीरो में 
एक असत्य को 
अपना अस्तित्व 
कायम करते !!





"ये नजरिये का झूठ ...ये दिल के वहम ..
मुझे नहीं मालूम मोहब्बत किसको कहते हैं

मगर खुद्खुशी शायद इसी को कहते हैं !!



"वन्दना "


Saturday, February 12, 2011

है इबादत कोई या दुआ है जिंदगी




है इबादत कोई या  दुआ है जिंदगी 
हर मौसम में बहती हवा है जिंदगी 

बहारो से गुजरे तो महकता गुलशन
पतझड़ में दहकता धुंआ है जिंदगी 

किसी के वास्ते है अंधेरों का सफ़र 
किसी के लिए एक  शुआ है जिंदगी 

खोकर   है पाना ,पाकर है  खोना
इक खेल है   एक जुआ है  जिंदगी 

कौन समझे   सच   किसी का यहाँ 
झूठ जीने   का कारवाँ  है जिंदगी !

"वंदना" 



Wednesday, February 9, 2011

अधूरी नज्मे ..





1.

हर एक मुराद दिल कि 
खुद से हारी हुई 

मालूम होती है ..

के  सजदे में हैं 
मगर 
मांगती कुछ नहीं !!


2.


आँखों के खामेजां 
कुछ ख़्वाब उदास थे 
....तमाम रात 
नींद सिराहने बैठी 
सिसकती रही !!


3.

अपनी दरबदरी का सबब मैं खुद ही तो हूँ 
मैंने उससे पनाह चाही जो खुद बे घर था !


4.




जिससे  जितना भी मिलो.. 
दिल खोल कर मिलना  ..
जिंदगी लम्बी सही मगर ..
रिश्तो कि उम्र बहुत छोटी है ! 


5.


गुमान कोई भी हो अच्छा नहीं होता ,
जिंदगी आईना सा दिखा देती है एक रोज़ ...



6.


इससे ज्यादा किसी मासूम को 
वक्त  भला क्या समझाए ?
जो टूटे हुए खिलौनों में 
बचपन रहा  हो ढूंढ  !..


7
.



वो गुनाह भी कबूल है ..ये सजा भी कबूल है
रो रो कर हार गये ..खुद से भागने में ,
जिंदगी अब तो तेरा हर एक इल्जाम कबूल है .

8.


इसके अपने  वसूल अपने  कायदे है
 हर एक वजूद को सलीके से तोलती  है 
सुनने कि आदत डालो वंदना  
.जिंदगी जब भी बौलती है खरा बोलती है 

Wednesday, February 2, 2011

सांस





एक सांस भटकती होगी 
कुछ कुछ अटकती होगी 

एक लम्बी सी ख़ामोशी 
सीने में खटकती होगी 

जहन कि  सीढ़ी  पर 
जब पाँव पटकती होगी 

उल्फत  कि डोरी  को 
जोरो से झटकती होगी  

यादों के अनगिन सिक्के 
हर रोज़ सटकती होगी !



तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...