इस याद गली को मैं ...जितना छोटी और संकरी करने कि कोशिश करती जाती हूँ ........उतना ही वह लंबी और विशाल होती जाती है .......लंबी इसलिए कि लाख कोशिशों के बावजूद .....आजतक मैं इसके अंतिम छोर तक कभी नहीं पहुँच सकी हूँ !.......क्योकि कई बार जब यादों से गुजरना एक भटकाव कि तरह लगने लगता है ...जैसे किसी को खोजते खोजते हम इतने दूर निकल आएं हों ...जहाँ केवल पतझड़ के मौसम के पहाड़ नंगे तपते हुए ....मगर अपनी विशालता और ऊँचाइयों कि गुरूर को बनाये रखने के लिए फिर भी मुस्कुरा रहे हों ..और उन ऊंचाइयों से खड़े होकर हम.... आत्मा और दिल के पूरे जोर को निचोड़ते हुए किसी को बार बार पुकारे .......और वो पुकार .जैसे रसोई में बहुत ऊपर से कोई बर्तन गिरकर गूँज करता हुआ कानो में कम्पन्न कर देता है बिल्कुल ऐसे ही आसमां कि सतह से टकराकर बेहद गूँज करती हुई छन छन पहाड़ों पर गिरती पड़ती नीचे जेमीन कि सतह पर जाकर कहीं गुम हो जाती है .....और अपनी पुकार कि इस गूँज से डरकर ....कानो को दबाये हम काँप उठते हों और धीरे धीरे शांत होते शोर के साथ हम भी एक सहमी हुई ख़ामोशी के साथ मौन हो जाते हों .....ठीक इसी तरह इस यादों के इस भटकाव को भी मैं एक शून्यलोक पर देखना चाहती हूँ ....लेकिन तमाम कोसिशों के बावजूद आज तक कभी मुमकिन नही हो पाया !
शायद इसलिए क्योकि कुछ चीज़ों को खत्म कर देने भर से उनका महत्व नही खत्म होता .....हम जिस चीज़ से भागना चाहे और उसमे हम कामयाब हो जाएँ तो शायद जिन्दगी में कुछ बचे ही न !!