Saturday, June 25, 2011

इबादत को मैं एक भरम लिख दूं




सोचती हूँ इस फ़साने का अब कोई अदम लिख दूं 
क़त्ल ए किरदार से पहले एक आखरी नज्म लिख दूं ....

जिंदगी नयी शर्तों पर फिर जीने के मोहलत ले आयी ...
इसे साँसें बख्शने  से पहले मरता हुआ गम लिख दूं 

ये सदायें ,चुभन ,बेचैनिया गर  बेसबब हैं तो क्यूं हैं ?
कोई जवाब दे ,तो इस इबादत को मैं  एक भरम लिख दूं   

चलो मान लेते हैं दिल को दिल से कोई राह नहीं होती 
उदास  है हवा.. तो क्यूं अपने मौसम मैं नम लिख दूं 

इश्क, मोहब्बत या महज एक पागलपन ,जो भी हो 
जी चाहता है ,हर एक आरजू पे मैं  सारे जनम लिख दूं 

वंदना 



Friday, June 24, 2011

नज़्म





बहुत दिन हो गये ...
खुद से लड़ झगड़ कर 
कोई नज्म लिखे हुए ...
यूँ तो रोज लिखती हूँ 
कुछ ना कुछ ....

या यूँ कहूँ के हर पल लिखती हूँ 
कोई ना कोई ख्याल 
लगा ही रहता है जो मुझे 
कभी अकेला नहीं होने देता ..

कभी उमंग बनकर ...
कभी उदासी बनकर 
कभी उम्मीद बनकर 
कभी मायूशी बनकर 
और मैं सहज लेती हूँ 
अपनी तहरीरों में ....

लेकिन एक नज्म अधूरी पड़ी है ..
एक रात जब 
खुद से अपनी नाराज़गी 
चाँद पर उतारने के लिए 
मैं देर रात तक जागी थी 

नींद से डबडबाई आँखों को 
 उन तारों के बीच 
कहीं छोड़ दिया था 
तमाम रात भटकने के लिए 

जिनसे पिघलती ओस से 
नम हो गयी थी बंजर जमीं 
और  मैं एक परिधि पर घूमती 
धरती के साथ  परिक्रमा पूरी 
करके खिड़की पर ठिठक कर 
रह गयी थे जैसे ..

बहुत से ख्याल आ आ कर चले गये 
नहीं सहेज पायी उन्हें 
नहीं गूंथ सकी उस लम्हा लम्हा 
बिखरती रात को एक नज्म में ..

आज फिर छटपटाती सी हवा 
के साथ ..इस चांदनी में कहीं 
खोकर एक नज्म कि किश्ते 
चुनना चाहती हूँ ..

अपनी  नींदों को आज
फिर सजा सुनानी है.....
ताकि कुछ  ख़्वाबों ख्यालों कि  
गुहार सुन सकूँ !!

'वन्दना '

Wednesday, June 22, 2011

बरकरार ये सिलसिला रखना !



तुमसे हो सके तो बरकरार ये सिलसिला रखना 
दिल के किसी कोने में हमसे कोई गिला रखना 

हमने ये मान लिया मोहब्बत एक गुनाह  है
इन दूरियों के दरमियाँ तुम मेरी सजा रखना 

तुमसे ताल्लुक कोई न था , ना है   न रहेगा 
भरम रफाकत का मगर दिल में सदा रखना 

तुझे जाना नही पहचाना नही मगर माना बहुत 
दिल कि इसी नादानी का नाम तुम वफ़ा रखना 

किसी पल बैठकर तन्हा कभी मुस्कुराओगे 
 उन सब पुरानी यादों से तुम वास्ता रखना !




'वन्दना '

Monday, June 20, 2011

धूल


कितने रेतीले हैं 
जिंदगी तेरे रास्ते ..
और कितनी बेबाक हैं 
वक्त कि हवाएँ 

वो एक झोका जिसकी 
कोई दिशा नही थी ..
मगर मुझे दिशा हीन कर गया 

आज भी बाकी हैं 
मुझमे कहीं वो धूल ..
जो किरकती है 
मूँह में किसी 
अनकही बात कि तरह  ..

जो महसूस होती है 
इन साँसों मे 
वीणा के टूटते तारों
 कि खनक कि तरह 

जो जमी हुई है 
जहन कि गीली 
जमीन पर साहिल के 
रेत कि तरह  

जो बहुत चुभती है
 इन आँखों में ..
तपती धूप मे
 बंजर रेती कि तरह ..

 सुना है .जिंदगी में .अच्छे और बुरे 
हर मौसम को गुजर जाना होता है 

बारिशों का मौसम  आये 
इससे पहले लौटाना चाहती थी 
तुम्हारे हिस्से कि वो धूल जो 
मुझ  में रमी रह गयी थी 

चंद घंटो के उस सफ़र में 
अनचाहे से एहसासों कि 
वो तमाम किरचें
 जिन्हें मैं मसलते हुए 
बिखेरती आयी थी 
उस बहुत शोर करते हुए 
शहर कि विरानगी के नाम ..

वो तुम्हारे हिस्से कि धूल थी 
जिसमे मेरा कुछ भी 
बाकी नहीं छोड़ा मैंने 
ना आँसू , न सिसकियाँ 
कुछ भी तो नहीं ..
ताकि तुम्हे न चुभ सके कुछ !!


वन्दना 



Sunday, June 19, 2011

वो बादल वो हवा वो बूंदों कि रिमझिम




जागती नींदों में सोया एक ख़्वाब जैसे 
मैं उसकी तन्हा रातों का महताब  जैसे 

उसके  हर सफ़हे पे लिखी हैं आयतें मेरी 
वो बिखरती हुई सी एक किताब जैसे 

उसके आँगन में बरसता हुआ मैं सावन 
वो कोई भीगता हुआ  सा  गुलाब जैसे 

मैं आँखों में उसकी महकता हुआ  गुल 
वो मेरी पलकों पे शबनम ओ आब जैसे 

वो बादल वो हवा वो बूंदों कि रिमझिम 
मैं ठहरा हुआ सा    कोई तालाब जैसे 

उसकी साँसों में खनकता मैं सितार कोई 
वो मेरा गीत  ग़ज़ल ,रूह ओ अज़ाब जैसे  


वन्दना 


Happy Father's day :)





अक्सर जब ख़ुद पर हँसती हूँ 
तो आँख भर आती है ,
लोग मेरे चेहरे की खिलखिलाहट ढूंढते है

जब कभी ख़ुद से शिकायत होती है
तो मेरी पलके.... सिसकते हुए 
दिल का साथ नही देती ,
और आँखे बेहया सी खामोश रह जाती है !

जब पापा मेरी नादानियों को 
हंसकर भुला देते है यूँ ही
तो जाने क्यूं वो छोटी छोटी 
गलतिया भी गुनाह बन जाती है,

अपना ही स्वामित्व सजाये देता है
दिल के कानून से दफाएँ लग जाती है,

और जब गुस्से में 
बडबडाती हुई 
माँ.. जब डाट  देती है
तो दफाएँ सब हट जाती है 
और सजाये माफ़ हो जाती है **


पापा के शख्त प्यार में ..
कठोर व्यवहार में..
अटूट विश्वास में.. ,
आशा भरी आंखों के 
स्नेह अपार में ..

माँ के दुलार में ...
सच्चे संस्कार में..,
गुस्से में बहने वाली 
एक निर्मल सी धार में .. 
झूठी फटकार में .

जब जब ख़ुद को
 परखती हूँ...तो जिन्दगी 
निखरती जाती है..
निखरती जाती है.. 
निखरती जाती है ..

'वन्दना '

Friday, June 17, 2011

ग़ज़ल ,





तेरे बाद   जिन्दगी में  वो मौसम नहीं आये 
खुलकर रोये तो बहुत लेकिन हंस  नहीं पाये 

मेरे पागलन को सौंप कर विरहा  कि अगन 
तुम ऐसे गये की  कभी लौट कर नहीं आये 

रो रो के मना लेते तुझे अपना बना लेते 
रिश्तो कि गरीबी ने  ये हक़ नही  पाये 

देखा है खुदको हमने मिटते रफ्ता रफ्ता 
हम हार गये खुद से हमसे जीत गए साये 

वो रास्ता कि जिससे  हो लौटना  मुश्किल 
भूल कर भी कभी कोई मेरे यार नहीं  जाये

वंदना 






Thursday, June 9, 2011

ग़ज़ल ....





जैसे किस्मत का अपनी सितारा देख लेते हैं 
 टूटकर गिरता हुआ  जब तारा देख लेते हैं 

एक सैलाब आँखों तक आके ठहर जाता है 
बहुत खामोश जब कोई किनारा देख लेते हैं 

दुनिया में किसी से कोई शिकवा नहीं रहता 
हर रिश्ते का बिगड़ता जब नजारा देख लेते हैं

जी तड़प उठता है ताउम्र माँ के सजदे को  
जब कभी कोई बच्चा बेसहारा देख लेते हैं  

जी चाहता है कि खुद से कहीं भाग चलें 
गगन में जब कोई पंछी आवारा देख लेते हैं 

अपना ही ठिकाना कहीं नजर नही आता 
बाकी तेरी आँखों में जंगल सारा देख लेते हैं 

वंदना 




Thursday, June 2, 2011

आशार - जो ग़ज़ल न हुए





कैसा शोर है अंतर्मन का  कैसी ये झनकारे हैं
जैसे माँ ने सब बर्तन .....मेरे सर दे मारे हैं..

धूप गयी न बादल आये ,कौन नदी कि प्यास बुझाये    
जंगल के सारे पपिहाँ   आज बोल बोल कर हारे हैं..

क्या कहूं किस डाल पर दिल अपना मैं रखकर भूली 
सारा ही जंगल समेटे   ये दो मृग नयन तुम्हारे हैं 

रात में परदेशी बादल , छप्पर छप्पर चलकर आया
पर्वत  के सिर  से न जाने    कौन गगरिया  तारे है

उनकी जात-पात खुली ,इंसानियत कि आँख न रोई 
राधा को बनवास हुआ ,अब मोहन किसे पुकारे है

चलते चलते हारा जीवन और बोला अभिलाषाओं से 
अब दो गज धरती मेरी है बाकि सब आकाश तुम्हारे हैं 
- वन्दना 

तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...