Sunday, September 1, 2013

मत चींखो मत लड़ो दामिनी


मत चींखो मत लड़ो दामिनी यहाँ ओरत होना सस्ता है
अन्धो कि चोपट नगरी में इन्साफ नही हो सकता है

तुम मर गयीं, मरती रहोगी, हर गली चौराहे पर

यह देश इस मातम को  रोज़ रोज़ कर सकता है

कौन देखे धब्बे अस्मिता के कानून जहाँ का अंधा है
जुर्म से कैसे लड़ पायेगा वो तो लाचार निहत्ता है

खिश्याया सा पूरा देश ,देखो  खुद पर हँसता है
यहाँ आसाराम जैसा भी "धर्म गुरु " हो सकता है

तुमको क्या मालूम कलयुग के धृतराष्ट्रों कि लाचारी
इस जुर्म को लेकर कैसे कोई महाभारत हो सकता है

बिगुल बजाकर हम तो देखेंगे कैसे आँचल जलता है
तुम्हारे श्राप से कौन दामिनी यहाँ कैसे कैसे गलता है
- वंदना
08/31/2013 

7 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि का लिंक आज सोमवार (02-09-2013) को  प्रभु से गुज़ारिश : चर्चामंच 1356 में  "मयंक का कोना"   पर भी है!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बेहतरीन उदबोधक उम्दा प्रस्तुती,आभार।

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  3. आज सच ही ऐसे हालात हैं ।

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  4. उम्दा प्रस्तुती,आभार।

    कृपया यहाँ भी पधारें और अपने विचार रखे
    , मैंने तो अपनी भाषा को प्यार किया है - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः11

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  5. आज के हालातो को बखूबी बयां करती हुई रचना वंदना जी । सही जगह चोट करती हुई

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  6. बहुत सुन्दर.. मैं कहूँगा मत चीखो लड़ मरो दामिनी और दामिनी ही क्यों हर कोई जिस पर जुल्म हो नर हो या नारी हो लड़ना ही चाहिए . अगर कश्मीर में पंडित लड़ते तो उन्हें घर छोड़ना नहीं पड़ता .. जुल्म तो हर जगह है उसका एक मात्र निदान लड़ना है ..

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तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...