Wednesday, June 18, 2014

त्रिवेणी



मुमकिन है पानी पर पैरों को जमाना 

तपती रेत का एक रोज़ आईना हो जाना 

बस तुम खुद से बहुत दूर न निकल जाना !

वंदना 


Wednesday, June 11, 2014

उलझन



अपने  अंतर्मन के 
इसी सन्नाटे से  
डरती रही मैं आजकल 

 अच्छा लग रहा है 
 मगर अब 
अपने  भीतर का ये शून्य 

मैं ठहर पा रही हूँ 
 जिंदगी के मंच के 
खुरदुरे धरातल पर 


अपनी एड़ियों की पकड़ 
मजबूत लगने लगी है 


खुद को  समझाना इतना 
मुश्किल नही था शायद 

बस वक्त लग गया 
ख़्वाब और हकीकत का 
फर्क समझने में

सुलझ गयीं हैं
मन की फांस 

मगर फिर भी है
कुछ अनसुलझा सा
इस दरमियाँ

जिसे सुलझा मैं पाती नही
और उलझना मैं चाहती नही !

~ वंदना






तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...