मुट्ठी से यूं हर लम्हा छूटता है
साख से जैसे कोई पत्ता टूटता है
हवाओं के हक़ में ही गवाही देगा
ये शज़र जो ज़रा ज़रा टूटता है
कुछ हैराँ -परेशां सा एक कबूतर
गुज़रे मौसमों के निशां ढूंढता है
लोग किस ज़माने की सुनते हैं
जमाना आखिर किसे पूछता है ?
मिटटी या कुम्हार, दोष किसे दें
पानी में गिरते ही घड़ा फूटता है
अपने सर पे कई इलज़ाम लेकर
इस दौर में बस आईना टूटता है
कोई मनाए देकर दोस्ती का वास्ता
इस उम्मीद में अब कौन रूठता है
वक्त लगता है दिल के बहल जाने में
रफ्ता रफ्ता उम्मीद का दामन छूटता है
वंदना
वक्त लगता है दिल के बहल जाने में
रफ्ता रफ्ता उम्मीद का दामन छूटता है
वंदना