Wednesday, November 19, 2014

ग़ज़ल


मुट्ठी से यूं हर लम्हा छूटता है 
साख से जैसे कोई पत्ता टूटता है 

हवाओं के हक़ में ही गवाही देगा 
ये शज़र जो ज़रा ज़रा टूटता है 

कुछ हैराँ -परेशां सा एक कबूतर 
गुज़रे मौसमों के निशां ढूंढता है 

लोग किस ज़माने की सुनते हैं 
जमाना आखिर किसे पूछता है ?

मिटटी या कुम्हार, दोष किसे दें 
पानी में गिरते ही घड़ा फूटता है 

अपने सर पे कई इलज़ाम लेकर 
इस दौर में बस आईना टूटता है 

कोई मनाए देकर दोस्ती का वास्ता 
इस उम्मीद में अब कौन रूठता है

वक्त लगता है दिल के बहल जाने में 
रफ्ता रफ्ता उम्मीद का दामन छूटता है 

वंदना 









Wednesday, November 12, 2014

ग़ज़ल




नींद टूटी ख़्वाबों का सिलसिला टूटा 
चेहरा धुंधलाने लगा तो आइना टूटा

हर मुसाफिर अपने लिए चल रहा था 
किसको मालूम कब वो काफिला टूटा

परिंदे उड़ गये थे कर के वीरान इसे 
अपनी मर्जी से नही ये घोंसला टूटा

गिरकर संभलना चींटी का स्वभाव था 
दीवार ही गिरने लगी तो होंसला टूटा

सबके ही काँधे पे अना का बोझ था 
जब मगर थकने लगे तो कारवाँ टूटा


~ वंदना 
10/18/14

तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...