Thursday, February 16, 2017

गीत


नयन हँसें और दर्पण रोए 
देख सखी वीराने में 
पागलपन अब हार गया
खुद को कुछ समझाने में 
--

काली घटायें 
घुट घुट जाएँ 
खारे पानी 
नयन समाएं। 
मन में मुंडेर पे 
बैठ परिंदा 
विरह के नित 
गीत सुनाए। 
इसके हवा ने पंख कुतर लिए 
ये टूटा नही... गिर जाने में 


नयन हँसें और दर्पण रोये 
देख सखी वीराने में 

--

कैसे है ये 
रोग वे माए 
रो -रो रतियाँ 
नयन गंवाए।
जुड़के न टूटे 
डोर ये मन की 
साँसों विच कोई 
अलक जगाये। 

मन बैरागी ,भेद न समझे 
जीने, और... मर जाने में। 

नयन हँसें और दर्पण रोये 
देख सखी वीराने में
पागलपन अब हार गया 
खुद को कुछ समझाने में। 






2 comments:

  1. wah....realy realy realy nice poem...


    if u contact with me than...
    mujhe achhha lagega ,....
    plz meri prerna banniye..
    ,mujhse bhi kuch kahiye ..

    chetangochar1998@gmail.com

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  2. नयन हँसें और दर्पण रोये
    देख सखी वीराने में
    bahut khubsurat..

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तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...